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सम्मतिः

mohi
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पुस्तक ‘‘मोही शतक’’ से अंश ……
डा. राम कृपाल त्रिपाठी द्वारा दी गयी सम्मतिः ……

श्री मोहनलाल ‘मोही’। द्वारा विरचित नवकाव्य संग्रह हास्य व्यंग्य ओग एवं भक्तिरस को अवलोकन कर चित्त को गद्गद हो गया। मन मयूर नाच उठा। संस्कृत साहित्य के प्रख्यात रचनाकार त्रिविक्रमभट्ट की उक्ति है-
किं कवेस्तस्य काव्येन किं काण्डेन धनुर्भृतः।
परस्य हृदये लग्नं न घूर्णयति यच्छिरः।।
अर्थात् कवि से उस काव्य एवं धानुष्क के उस बाण का क्या लाभ जो सामने वाले के हृदय में प्रविष्ट होकर आनन्द या पीड़ा से सिर हिलाने को बाध्य न कर दे।
श्री मोही जी की कविता में भी वही शक्ति है। बिना शक्ति के काव्य निर्माण हो ही नहीं सकता। शक्ति एक संस्कार विषेश है जिसके बिना या तो काव्य बनेगा ही नहीं और यदि बन भी गया तो लोक ग्राह्य नहीं होगा। श्री मोही जी को वह सहज शक्ति प्राप्त है। इनकी रचना का वैशिष्ट्य यह है कि काव्य को अनेक विधाओं की रचना में यह सिद्धहस्त हैं छन्दोबद्ध रचना जहाँ महाकवि रत्नाकर, पद्माकर का स्मरण दिलाती है वहीं मुक्तक, छन्दानुशासन रहित रचनायें भी रसपाक करने में अद्भुत हैं। कहीं कहीं निरालाजी की शैली तो कहीं अत्याधुनिक शैली। मैं इनकी कला दक्षता की भूरि भूरि प्रशंसा करता हूँ। भविष्य में इनकी रचनाएँ हिन्दी साहित्य का बहुमूल्य अवदान बनेंगी ऐसा मेरा दृढ विश्वास है।
विद्वदनुचरः
(डा. राम कृपाल त्रिपाठी)
प्राचार्य: श्री रंगलक्ष्मी आदर्श संस्कृत महाविद्यालय
वृन्दावन (मथुरा) उ.प्र.

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